(गाँव के एक घर का दृश्य। कमरे में सामान कम है किन्तु जो है वो सलीके से रखा गया है। जमीन में चटाई बिछाये एक प्रौढ़ स्त्री व नवयुवती वहीं बैठी हैं। उनके सामने कुछ कापी किताब खुली हुयी हैं ।)
नीना: (उठते हुए) अच्छा काकी, मैं चलूं। कल शायद न आ पाऊँ। इन्तजार न करना। वैसे भी अब तुम्हें कोई जरूरत तो है नहीं।
रामप्यारी: ऐसा काहे कहती है बिटिया। तू आती है तो मन लगा रहता है फिर पढ़ाई-लिखाई का भला कहीं अन्त है।
नीना: सो तो है काकी। पर अब तो तू पढ़ाई-लिखाई में अच्छी-खासी होशियार हो गई है।तू खुद अब पढ़ा-लिखा सकती है।
रामप्यारी : रहने दे-रहने दे,मैंने नहीं सुननी तेरी एक भी बात तुझे रोज आना होगा। पढ़ाई-लिखाई के अलावा क्या तू अपनी काकी के पास आकर बैठ नहीं सकती है?
नीना: ओ हो काकी। तुम तो गलत समझ बैठी हो। भला तुम्हारे साथ बैठे बगैर मुझे दिन काटना कैसे अच्छा लगेगा। खैर जो भी हो,मैं कोशिश करूंगी रोज आने की।
रामप्यारी : हाँ, अब कही न ठीक बात।
नीना: अच्छा तो मैं अब चलूँ,ठीक है ना।
(नीना का जाना। रामप्यारी का किताबों आदि को संभालना कुछ घड़ी बाद दीनू का आना)
दीनू: रामपियारी। रामपियारी।। सुनती नहीं है। कान बहराये गए हैं।
रामप्यारी: अरे... अरे ! (द्वार पर आकर) काहे सोर मचाते हो। ‘रामपियारी’, ‘रामपियारी’, अरे मैं इत्ती जल्दी न होंगी राम को पियारी।
दीनू: सो तो मैं भी जाने हूँ। मगर जरा ये बता आजकल ये ‘नीना’ यहाँ रोज-रोज काहे धमक जाती है। आजकल देखता हूँ बड़ी ‘दाँत-काटी’ चल रही है। काकी-भतीजी में।
रामप्यारी: तो तुम काहे जल रहे हो। काकी-भतीजी के मामले में तुम कौन हो टांग अड़ाने वाले।
दीनू: अच्छा! अच्छा! भागवान। तू तो खाली-पीली गुस्सा करती है।
रामप्यारी: तो क्या खुश होती। तुम तो बिना सोच-समझे आते ही, दागने लगे बन्दूक थानेदार की तरह।
दीनू: (हंसते हुए) तो तुझे अब मैं थानेदार भी लगने लगा हूँ। लेकिन पगली मेरे पास बन्दूक कहाँ जो दागूँ भला।
रामप्यारी: अरे जुबान की मार के आगे तो बड़े-बड़े, तोप-गोले पानी भरे हैं ।
दीनू: देख रहा हूँ तू इधर कुछ ज्यादा ही समझदार हो रही है।
रामप्यारी: तो अब क्या समझदार होने में भी पाप लगेगा।
दीनू: रामपियारी। रामपियारी अरे बाबा मुझे माफ कर। मैं तुझसे खाली पूछ बैठा।आगे कान पकड़े जो तेरे से कुछ पूछा।
रामप्यारी: अब कान पकड़ने से क्या फायदा। “पहले आगी में मिर्चा डालो फिर धुएँ से भागो।वाह! ये खूब रही ।
दीनू: चुपचाप बैठा रहता है। मुँह पलट लेता है।
रामप्यारी: अब मुँह फेरने से क्या होगा। मैं भी बता के रहूँगी। हाँ। यहाँ मैं खाली मगज नहीं मारती। न ही नीना से तुम्हारी काट करूं। वो तो समय कटता नहीं था सो बिटिया से पढ़ना सी रही थी। रोज आ के...
दीनू: (बात काटते हुए) क्या कहा तू पढ़ना सीख रही है।
रामप्यारी: खड़े हो गए ने सिर के बाल। (गर्व से) कोई हंसी खेल नहीं है पढ़ना-लिखना। मैं हूँ जो खड़ी हूँ पहाड़ की तरह। तुम्हारी तरह नहीं कि दुम दबाई और चलते बने।
दीनू: देख-देख मुझे जोश न दिला। मैं चाहूँ तो सब पढ़ाई-लिखाई एक दिन में पूरी करके दिखा दूँ।
रामप्यारी: वाह! क्या कहने। अरे ये तुम्हारे खेत की फसल थोड़ी है जो एक रात लगे और काट लाए। ज्ञान की फसल को जितनी तेजी को काटो उससे दूनी गती से बढ़े।
दीनू: (आश्चर्य से) लेकिन ये सारी बातें तेरे मत्थे चढ़ी कैसे?
रामप्यारी: अरे ‘मत्था’ टिकाओ तो तुम्हारे भी आने लगेगी।
दीनू: लेकिन मेरा ऐसा मत्था कहाँ? अगर पढ़ने वाला छोरा होता तो तुझसे शादी काहे करता।
रामप्यारी: बहुत-खूब कही। ऐसी उलजलूल बातें कहने को मत्था है मगर पढ़ने लिखने को नहीं है। मुझसे शादी करने का इतना ही मलाल है तो मैं चली घर अपने जो तुम जैसे ‘होशियार’ के आगे टिकती हो उसको पकड़ लाओ।
दीनू: ऊहूँ तू तो नाराज होती है। अरी भलमानस मैं तो तब की बात कह रहा था जब मैं पढ़ा-लिखा बाबू होता। अभी तो मैं बिना मत्थे वाला हूँ इसलिए तू ही ठीक है।
रामप्यारी: अच्छा! तो ये बात। अब तो मैं यहाँ एक पल भी नही टिकूँगी।
(रामप्यारी अपने कपड़े बक्से में भरने लगती है।)
दीनू: (हल्के से) ये अच्छी धौंस है। जब देखो दाल न गलेगी। दौड़ पड़ी अपने अम्मा-बापू के पास मुझको गरियाने।
रामप्यारी: ये का कह रहे हो जरा मैं भी तो सुनूँ। जरूर मेरे घर वालों की बात कर रहे होंगे।
दीनू: नहीं ‘नीना की काकी’। मैं तो कह रहा था कि मैं कितना मूरख हूँ जो अपने घर की लक्ष्मी को बार-बार नाराज कर देता हूँ।
रामप्यारी: सच! मसखरी तो नहीं?
दीनू: अरे भला तुझसे मसखरी कि मेरे हिम्मत कहाँ?
रामप्यारी: ठीक है। अब-जब तुम गलती मान ही रहे हो तो काहे घर जाऊँ। चलो, मैं तुम्हें रामायण पढ़कर सुनाऊँ। अर्थ सहित वैसे ही जैसे पण्डित जी सुनाते हैं।
दीनू: (हल्के से) महाभारत तो करके दिखा ही दी है। अब रामायण भी सही।
रामप्यारी: क्या कुछ कहा? मैं कहती हूँ आखिर इधर तुम्हें कुछ दिनों से हुआ क्या है? जब देखो बुदबुदाते हो। जोर से बोलने में शर्म लगती है क्या?
दीनू: शर्म काहे की। गाँव जाने तू मेरी जोरू मैं तेरा गुलाम। मैं तो कहूँ तेरा गला इत्ता अच्छा है अब तो पण्डित जी कि छुट्टी समझ।
रामप्यारी: मैं किसी की काहे छुट्टी करने लगी। और क्या कहा ‘तुम मेरे गुलाम’। देखो फिर अगर ऐसी ओछी बात कही तो गला दबा लूँगी।
दीनू: किसका?
रामप्यारी: किसका क्या? पहले तुम्हारा फिर अपना।
दीनू: अरे-अरे छोड़ इन बातों को। मेरी आदत तो तू जानती है। अच्छा चल सुना तो रामायण की कथा।
रामप्यारी: अच्छा ठीक है सुनाती हूँ। मगर ध्यान से सुनना।
दीनू: अरे! इसमें कहने वाली क्या बात है?
रामप्यारी: हुँ, हुँ (कुछ सोचते हुए) पहले मैं बालकाण्ड की वो चौपाई सुनाती हूँ जो मुझ रट गयी है।
दीनू: अरे तू लंकाकाण्ड की चैपाई सुना, मेरी क्या बिसात जो न करूँ।
रामप्यारी: उफ, तुम्हें अभी भी ठिठोली सूझ रही है। भगवान जाने तुम कब सुधरोगे।
दीनू: अरे तू, अपने पास बैठा कर इसी तरह रोज कथा बाँचेगी तो मैं भी एक न एक दिन सुधर जाऊँगा।
रामप्यारी: (गुस्से से) ऊँह, सुधर जाऊँगा। ऐसे सुधरने वालों के लिए मेरे पास वक्त नहीं है।
दीनू: (हल्के से) जैसे ये प्रधानमंत्री हैं, वक्त नहीं है, ऊँह (जोर से) अरे समय तो निकालना ही होगा नीना का काकी, नहीं तो गाँव में तेरी ही बदनामी होगी। लोग कहेंगे दीनू की घरवाली तो इतनी समझदार है पढ़ना-लिखना जानती है और एक दीनू है -निपट, गंवार, अनाड़ी।
रामप्यारी: गंवार, अनाड़ी। अरे तुम तो बड़े खिलाड़ी हो। हाँ बस एक बात तुममे बहुत बुरी है जो हर बात को हंसी में उड़ा देते हो। उस समय तुम्हें अपना फायदा-नुकसान कुछ नहीं सुझता। अरे आजकल पढ़े-लिखे की वकत है। उसे ऊँची नजरों से देखते हैं फिर तुम्हें तो सब गाँव वाले चाहते हैं। आज पढ़े-लिखे होते तो कौन जाने सरपंच तुम ही चुने जाते।
दीनू: तू ठीक कहती है रामप्यारी। जो अपने स्कूल के मास्टर जी हैं न, वो भी मुझसे कई दिन कह चुके हैं - दीनू काका, पढ़ने-लिखने मेरे पास आ जाया करो। तुम तो बहुत समझदार हो एकदम से सीख लोगे। अभी जब मैं घर आ रहा था तो फिर मिले थे,कह रहे थे दीनू काका, क्या सोच रहे हो, अरे पढ़े-लिखे लोगे तो मुझे भी एक हाथ बंटाने वाला मिला जायेगा।
रामप्यारी: अरे,शिक्षा-दान तो बड़े पुण्य का काम है। नीना को नहीं देखा कैसे घर-घर जाकर औरतों को, बच्चों को पढ़ाने में लगी है। वैसे तुमने क्या कहा?
दीनू: अरे क्या कहता - मैंने कहा - “मास्टरजी, कब बाप मरेंगे, कब बैल बटेंगे” पहले मैं पढ़ना-लिखना सीखूँ तब तो पढ़ाऊँगा। फिर भला बूढ़ा तोता कहीं राम-राम कहता है।
रामप्यारी: तो मास्टरजी क्या बोले -
दीनू: मास्टरजी कहने लगे - दीनू काका, राम का नाम तो पवित्र नाम है जिस समय लो पुण्य बटोरो। यूँ भी आदमी की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है उसकी समझदारी बढ़ती है।
अपना भला - नुकसान ज्यादा अच्छी तरह दिखता है। पढ़ाई-लिखाई तो नफे-नुकसान की पहचान और साफ कर देती है जैसे आँखों से मोतिया-बिन्दु हट जाए वैसे ही।
मास्टरजी तो ये भी कह रहे थे कि दीनू काका-आप पढ़ोगे, लिखोगे तो देखा-देखी औरों की भी झिझक खुलेगी।
रामप्यारी: तो मास्टरजी ने हामी भर दी।
दीनू: अभी नहीं, कहा है सोच कर बताऊँगा। दो-चार रोज में।
रामप्यारी: अरे इसमें सोचने की क्या बात है। मैंने तो नीना से एक दिन खुद कहा नीना बेटी, तू इत्ती किताबें पढ़ती रहती है। जरा अपनी काकी को भी तो कुछ सीखा दे। वो कहने लगी - अरे काकी तुमने मेरे मुँह की बात छीन ली। बस फिर क्या था उस दिन से ही हम लोगों ने इधर-उधर की बेकार बातें छोड़कर पढ़ना-लिखना शुरू कर दिया।
दीनू: (कुछ नहीं बोलता है। चुपचाप रामप्यारी को देख रहा है।)
रामप्यारी: देखो, जो मैं तुम्हें रामायण की चैपाई सुनाने को कह रही थी उसमें तुलसीदास जी कहते हैं कि संत समाज यानि पढ़े-लिखे लोगों के बीच उठने-बैठने से हर तरह का लाभ होता है।
सज्जन फल पेखिऊ ततकाला। काक होंहिं पिक बकऊ मराला।
सुनि अचरज करे जनि कोई। सतसंगति महिमा नहीं गोई।।
कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सतसंग की महिमा छिपी नहीं है। तुलसीदासजी सत्संग की ही महिमा और बखानते हुए कहते हैं।
बिनु सतसंग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।
बिना सतसंग के विवेक नहीं होता और श्रीराम जी की कृपा के बिना वह सतसंग आसानी से नहीं मिलता उसके लिए तो करम करना ही होगा। सतसंगति आनन्द और कल्याण की जड़ है।
सठ सुधरहिं सत संगति पाई। पारस परस कुधातु सुहाई।
विधि बस सुजन कुसंगत परही। फनि मनि सम निज गुनअनुसरही।
यानि दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के छूने से लोहा सुन्दर सोना बन जाता है।
दीनू: (बीच में बोलते हुए) लेकिन मैं तो तेरी जैसी समझदार औरत के साथ रहते हुए भी काठ का उल्लू ही रहा। लेकिन नहीं, मैं भी अब पढ़ना लिखना सीखूँगा। पहले मैं भी सोचता था इस उम्र में पढ़ने-लिखने से क्या होगा पर मास्टरजी ने सच कहा राम नाम लेने के लिए उम्र थोड़ी ही देखी जाती है। पढ़ाई-लिखाई पुण्य का काम है। मैं भला इसमें काहे पीछे रहूँ। फिर मास्टरजी जैसे नेक दिल आदमी की बात रखना भी हो
जाएगा। मुझे उनकी बात मान कर देखनी ही चाहिए।
रामप्यारी: क्यों नहीं, क्यों नहीं, तो अब कल मास्टरजी को हामी भर देना।
दीनू: कल, अरे कल काहे भागवान। आज और अभी जाऊँगा। बस जरा भूरी को अपने हाथ से खाना खिला आऊँ।
रामप्यारी: (जाती है, फिर एकदम से पलटकर) अरे हाँ सुनो गोपाल भईय्या के घर के पास वाली देवी मईय्या को चार बतासे चढ़ाते हुए मास्टरजी के घर जाना।
दीनू: अरे हाँ, तूने अच्छी याद दिलायी। लेकिन पहले अपनी देवी का तो मुँह मीठा करूँ। जा,भीतर मिश्री पड़ी होगी, ले आ।
रामप्यारी: ऊँह, अब इस उम्र में यही सब तो करोगे।
दीनू: अरे मास्टरजी ने ही तो कहा है अच्छे काम में उम्र नहीं देखी जाती है।
रामप्यारी: चलो हटो। (दीनू का हंसना, रामप्यारी का जाना)
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