लक्ष्मण बोला, “भाभी मैं जा रहा हूँ, अपना ख्याल रखना और हाँ मैं बाहर एक रेखा (सीमा रेखा) खींच
के जा रहा हूँ, उसका अतिक्रमण न करना।”
इतना कहकर लक्ष्मण तेजी से आगे बढ़ा तो सही परंतु मन ही मन आशंकित भी था कि कहीं भाभी
उसकी हिदायतों को इस बार भी ध्यान से उड़ा तो नहीं देगी। लक्ष्मण का यह संदेह निर्मूल नहीं था।
त्रेता युग से कलयुग तक के लंबे समय में केवल पात्र ही तो बदले थे, समीकरण तो अब भी अनछुआ
सा तथा बिना हल हुआ ही हर नयी पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी से उत्तराधिकार में मिल रहा था। यूँ तो
रावण नंगी आँखों के प्रमाणानुसार त्रेतायुग में मर चुका था, पर सच्चाई यही थी कि रावण जिंदा था
और उसकी कर्णभेदी अट्टहास हर क्षण गूँजता था।
अतः यही सब सोच लक्ष्मण के मन, मस्तिष्क में जब शंका के मेघ और भी काले हो उमड़-घुमड़ करने
लगे तो उसने एक बार पुनः सीता को सावधान कर देना उचित समझा। लक्ष्मण दौड़ता, हांफता
आधे रास्ते से वापस सीता के सम्मुख पहुंचा और संपूर्ण हिदायतों को टेपरिकाॅर्डर की भांति दुबारा
उगल कर अपने मार्ग पर बढ़ गया। अब वह पहले की अपेक्षा अधिक संतुष्ट था।
इधर सीता लक्ष्मण के आने-जाने से और भी व्याकुल सी हो दुश्चिंताओं का आंचल सिर पर ओढ़े
विचार मग्न थी कि काश वह लक्ष्मण को रोक लेती, उसे न जाने देती किंतु कहाँ ऐसा संभव हो पाया।
उचित वक्त पर तो जुबान को जैसे लकवा मार गया था और फिर लक्ष्मण भी तो आंधी, तूफान जैसे
वेग से शीघ्र ही चलते बने। सीता स्वयं को दोष देने लगी कि उसने लक्ष्मण को भेज कर बड़ी भारी
भूल की। अब थोड़ी देर में रावण आयेगा और ऐसी लच्छेदार बातें बनायेगा कि वह मोम की भांति तुरंत
पिघल जाएगी फिर उसे कुछ ध्यान न रहेगा। वह सहजता से रावण के प्रलोभन रूपी जाल में फंस कर
उसका शिकार हो जाएगी। सीता यही सब सोच ही रही थी कि “माई, भिक्षा दे,“ की आवाज से उसके
सोचने में व्यवधान पड़ा। बाहर देखा रावण खड़ा था। सीता को जैसे शक्तिशाली विद्युत का झटका
लगा, उसकी पूरी देह चरमरा गई। अभी तो वह भली भांति अपने आप को रावण के सामुख्य के लिए
तैयार भी न कर पायी थी कि...
खैर, अब तो सामना करना ही पड़ेगा, यही सोच सीता ने अपने आप को स्वयं ढाढ़स बंधाया और किसी
तरह बड़ी हिम्मत का परिचय देते हुए उसने कहा, “रावण मैं तुझे इस बार पहचान गई हूँ, तेरी
मीठी-मीठी बातों में छुपे जहर को भी मैं अब स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हूँ। अतः तेरा भला इसी
में है कि तू यहाँ से शीघ्र ही चलता बन।“
रावण शांत था, जैसे उसे पूर्ण विश्वास था कि अन्ततोगत्वा सीता की हार तय है, अतः मंझे हुए
खिलाड़ी की भांति उसने वाक्चातुर्य के जादू की झंडी घुमानी चालू रखी छोटी रूठी हुई प्यारी सी बच्ची
को जैसे कभी सुंदर रंगबिरंगी कांच की चूड़ियों, रिबन, बुंदे, गजरे आदि द्वारा बहलाने का क्रम तब तक
चलता रहता है जब तक गुड़िया रानी मान न जाए। ठीक उसी तरह रावण भी चालू था। रावण कभी
वेदपुराण से उद्धरण देता तो कभी अपने स्वयं के दिमाग की उर्वरा शक्ति संपन्न खेत से। कभी स्वर
में व्यंग्य झलकता था तो कभी नारी के भीतर छिपी भैरवी को आहृवानित करने के लिए किसी सिद्ध
तांत्रिक की भांति मंत्र बुदबुदाता।
कुछ भी हो, न चाहते हुए भी सीता को रावण के लंबे लैक्चर ने खूब झंझोड़ा और साथ ही आकर्षित भी
किया। वह सार रूप में इतना समझ गई थी कि अब अशोक वन अर्थात ऐसा वन जहाँ शोक
न रहते हों, का पूर्णतः आधुनिकीकरण हो गया है। वहाँ उसके व्यक्तित्व को पूर्ण निखरने का मौका
मिलेगा और यही तो उसके दबे घुटे अरमान हैं जो भालू की तरह ठंड के कारण गुफा में जाकर
मृत प्राय से हो गए थे। आज रावण द्वारा धूप की पहली किरण दिखाने से उनमें नवीन स्पंदन प्रारम्भ
हो गए।
सीता सोचने लगी कि आखिर नारी कब तक पुरूषों की दासी बनी रहेगी? नारी मुक्ति आंदोलन का
बिगुल जो आज बज रहा है उसमें प्रत्येक स्त्री की भागीदारी नितांत आवश्यक है और अभ्यास के
प्रथम चरण में लय-ताल पूर्णतः एक सुर में बहें ऐसा कहाँ हो पाता है। अतः फिलहाल तो उसे लयबद्ध
तरीके या बिना लय के कदम-ताल करनी ही है, कंधे मिलाने के लिए ही सही.यही समय की पुकार
है। साथ ही इस युग में एक सुविधा यह भी है कि आप हर रोज रात के गहन अंधकार की छाया
फैलने से पूर्व ही अशोक वन रूपी कार्य क्षेत्र से अपने नीड़ में आकर आराम से शांत चित्त हो बैठ
सकते हैं। यह सोच सीता रोमांचित हो उठी। तत्काल ही लेकिन उसकी दीप्त आभा सी मुस्कान इस
विचार से जम कर सिकुड़ सी गई कि अशोक वन में राक्षस, राक्षसियों की टोली तो उसके उत्साह
पर चील गिद्धों की तरह झपट पड़ेगी और अगर कोई त्रिजटा इस बार मानवी रूप में उसकी सहायता
के लिए बढ़ी फिर तो यह बात निश्चय ही शक में उत्प्रेरक का सा कार्य करेगी। अरे हाँ, सीता को
ध्यान आया अब तो अग्नि परीक्षा भी प्रतिदिन होगी पता नहीं किस-किस का मुंह बंद करने के लिए।
शाम को आते ही राम मर्मान्तक बाणों से उसका कलेजा छलनी कर सकते हैं जैसे-“तुम तो आॅफिस
में नही थी मैंने फोन किया था, ये वक्त है आने का? अच्छा इत्तफाक से बाॅस की गाड़ी आज यहीं से
हमारे घर से गुजरी।“
वो क्या करें उसकी समझ में नहीं आ रहा था, सोच-विचार में बहुत देर होती देख रावण भी अधीर हो
उठा और झल्लाते हुए बोला, “क्या करती हो माई, इतना सोच विचार आखिर क्यों? अंतिम परिणति तो
तुम्हारा घर से निष्कासन ही है न, फिर वो चाहे किसी धोबी के कहने से हो या फिर स्वयं राम के अंतर
मन में छिपी हिचकिचाहट से।“
“बस आती हूँ, तुम थोड़ी देर प्रतीक्षा करो,” सीता ने शीघ्रता से सब स्थितियों का बारीकी से अवलोकन
करते हुए कहा। वह कोई ठोस दृढ़ निश्चय लेने में सफल हो गई थी और अपने इसी विश्वास भरे
प्रिय राम,
आज मैं रावण के संग स्वयं लक्ष्मण रेखा को लांघ कर जा रही हूँ इसलिए नहीं कि मुझे आज्ञा
का उल्लंघन करने से कोई खुशी मिलती है अपितु इसलिए कि लक्ष्मण की खींची गई रेखा एक पुरूष
की खींची गई रेखा है। ऐसी रेखा जो स्त्री को सदैव कूप-मंडूपता के नर्क में, बेड़ियों से जकड़े हुए
सांस लेने पर मजबूर करती है। मैं तो समझती हूँ कि हम सब के अंदर एक रेखा है जो मानवीय मूल्यों
के हृास को रोकने के लिए चमकती हुई स्पष्ट सी खींची हुई है फिर स्त्रियों के लिए एक और दूसरी
रेखा खींचने का औचित्य?
तुम तो बड़ी सहजता से यह कहकर छुट्टी पा लोगे कि यह सब तो सुरक्षा के लिए था लेकिन
सच बताओ किसकी सुरक्षा के लिए? अपनी या मेरी? मैं जानती हूँ प्रिये, पुरूषों को स्त्रियों से सदैव भय
रहा है लेकिन यह निर्मूल है क्योंकि नर और नारी तो दो विपरीत ध्रुवों के रूप में विशिष्ट प्रकार से
गठबंधित हैं कि एक को भी लेकर चलने से सृष्टि रूपी चुंबक कार्य करने में असमर्थ हो जाता है।
अच्छा अगर मैं थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि तुम्हें वस्तुतः मेरी सुरक्षा का बहुत
अधिक ख्याल था तो मैं यह पूछ सकती हूँ कि स्वयं तुम्हें किसी रावण का भय नहीं है क्या? क्या वह
तुम्हारी अस्मत, आबरू नहीं लूट सकता? मेरे दोस्त, लूट सकता है और सच बात तो यह है कि
लूटता भी है, लेकिन तुम मक्कारी और फरेब से उसे अपनी विजय और हिम्मत के खाते में बढ़ा लेते
हो और हम असहाय से तुम्हारे पुरूषत्व पर ईष्र्या करते रह जाती हैं क्योंकि लिखने पढ़ने वाले धर्मराज
तुम्हीं हो न।
मेरे हमदम तुम यह मत समझना कि मैं रावण को पहचानने में भूल कर गई। मैं रावण को आज
भली भांति पहचान गई हूँ। दरअसल यह रावण बुरा नहीं है। यह तो स्वाभिमानी है जो सत्य रूपी
शिव, जो सुंदर अर्थात कल्याणकारी भी है, के सम्मुख अपना मस्तक अपने ही हाथों से काट सकने
की क्षमता रखता है। “विवेकशून्य” तो तब होता है जब यह नकली मुखौटे लगाकर दशग्रीव होने का
ढोल पीटता है।
आज मैं इसके साथ इसलिए जा रही हूँ कि जिससे इसकी कमजोरियों को भली भांति आंक
कर “दशग्रीव” का हनन कर सकूँ। राम, तुम घबराना नहीं, मैं रणक्षेत्र में उन्नीस नहीं पड़ूंगी। इस युग
में पितृकुल में मेरी शिक्षा-दीक्षा पूर्णतः कुंवरों के समान ही करायी गई है। अतः तुमको कष्ट करने की
जरूरत नहीं है। यह मेरी अपनी लड़ाई है। इसे मैं अपने ढंग से लड़ूंगी। हाँ तुम्हारे विश्वास और स्नेह
का कवच मुझे मिला तो सचमुच ही यह लड़ाई अत्यंत सरल हो जायेगी।
अंत में इतना और कहूंगी कि यह हमारी ही भूलों का परिणाम है कि इस दशग्रीव का आज तक खात्मा
नहीं हो पाया। कारण कि हम सदैव एक दूसरे की दशग्रीव पर चोट करते रहे और इस मृगमरिचिका
में रहे कि दुष्ट तो मर ही रहा है, पर तुम्हीं देखो, यह वास्तव में मरा नहीं न? फिर? दरअसल
अपने-अपने “दशग्रीव” को हमें अपनी-अपनी दशन्द्रियों के बाणों से एक साथ ही बींधना पड़ेगा, तभी
इसका अंत होगा।
आशा है तुम थोड़े कहे को बहुत समझोगे और पत्र पढ़ते ही मन शिला पर बाणों को धारदार
करने के लिए मेरी तरह जुट जाओगे।
इसी आशा में,
“कलयुग की सीता“
उर्फ सबला
सीता ने इतना लिखने के बाद पत्र को मुख्य दरवाजे से चिपकाया और फिर वह बड़े ही उन्मुक्त और
सहज भाव से लक्ष्मण रेखा को एक सधे हुए जिम्नास्ट की भांति फलांग कर बाहर आ गई।
-नलिन पाण्डे “तारकेश”
No comments:
Post a Comment