#पित्र पक्ष #श्रद्धा-सुमन
पुरखों को अपने ख़िराज-ए-अक़ीदत* पेश करना।*श्रद्धा-सुमन
एहसान नहीं वजूद खुद का ही है संभल रखना।।
कहाँ तक रहा कुदरत के सफर में हिस्सा हमारा।
ये सब देता है ब्यौरा खोल के अपना बहीखाता।।
बूंद से बूंद जुड़कर जैसे एक दरिया की रवानी बनी। कायनात में यूँ चल रहा आदमज़ाद का सिलसिला।।
फुरकत* में दिलदार के ताअकुब** से मुतमईन*** हो गया हूँ।
*जुदाई **पता चलाना ***संतुष्ट
कहीं गुम न हो बस बनके बादल वो कहीं और बरस जाता।।
यूँ देखो तो कोई किसी का नहीं वरना हैं सब एक ही। "उस्ताद" तिलिस्मी यही है खेल बड़ा परवरदिगार का।।
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