भीड़ में रहते हुए भी कितना तन्हा है आदमी।
दरिया के पास भी कितना प्यासा है आदमी।।
उम्मीदों के सहारे तो जिंदा रहता है आदमी।
उनके चलते ही मगर रोज मरता है आदमी।।
निगाहें चार सांवले सलोने से हो गईं जबसे।
उसी पल से चकोर सा बन गया है आदमी।।
तेरे-मेरे का फासला है तो नहीं पर मिटता भी नहीं।
दरअसल जिस्म से ऊपर उठ नहीं पाया है आदमी।।
दरियादिली में उसकी कमी "उस्ताद" कभी भी नहीं।
जाननिसारी पर मगर फिर भी डरता रहा है आदमी।।
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