रूठ कर बताओ तो जरा कहाँ छुप गए तुम।
भिगोने ये खुला आंचल मेरा नहीं आए तुम।।
गर्म थपेड़े चौखट में खड़े होने से रोकते हैं।
यूँ सुना ऐरे-गैरों से तो खूब बतियाते तुम।।
आषाढ से खड़े बेकल* लो अब सावन भी आ गया।*बेचैन
मगर यार दर्द चाक-ए-गिरेबां* कहाँ समझते तुम।।*गर्दन कटने का
एतबार तुम पर शायद ज्यादा कर लिया था हमने।
मरहम ए खंजर दोस्ती का आकर घोपते रहे तुम।।
सूरज,चांद,तारे,नदी,आसमां,परिन्दे शोख सारे।
काश "उस्ताद" कदर इनकी भी सीख जाते तुम।।
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