390: गजल- हिन्दी का परचम फहराया जाए
जुबां में आओ अब तो यूँ शहद घोला जाए।
मादरे जुबां में ही प्यारी गुफ्तगू किया जाए।।
जेहन में ख्वाब बुनते हैं हम जिसके सहारे।
लबों से उन्हीं लफ्ज़ों को गुनगुनाया जाए।।
गुलामी की जंजीरें हमें अब तो तोड़नी होंगी।
जुबां को अपनी हर हाल तरजीह दिया जाए।।
यूँ तो अच्छा है कि जानिए जितनी भी जुबानें।
मगर क्योंकर अपना ककहरा भुलाया जाए।।
उर्दु ये अपनी मौसी बनी है हिन्दी के ही चलते।
चलो ये राज असल अब सबको बताया जाए।।
जो जोड़ती है दिलों को गहरे जड़ों से "उस्ताद"।
अपनी बोली का उसी आओ परचम फहराया जाए।।
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