अना*को दे शिकस्त अब गुरूर आ रहा है।*स्वाभिमान
जमाने में चलन ये नया बहुत छा रहा है।।
जिसे देखिए वो कहे खुद को खुदा आजकल।
आईना भी गैरत* से खुद ही चटक जा रहा है।।*शर्म
हर तरफ बस होड़ है दौलत,शोहरत कमाने की।
हथेली में अनजान वो अपनी अंगारे उगा रहा है।।
फूल,चांद,तारे,दरिया से कहो तो किसे प्यार है।
हर शख्स तो बस यहाँ जमीं बंजर बना रहा है।।
हुकूमत काबिज़ रहे ता उम्र बस खूं से रंगी चाहे।
खतरा सिर पर तालिबानी सोच का मंडरा रहा है।।
अमन का पैरोकार बताया था जिसने खुद को सदा।
इंसानियत को "उस्ताद" वही आज दफना रहा है।।
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