नजरें उनसे क्या मिलीं,नसीब अपने संवरने लगे।
चले फिर जिस राह हम,शोख गुल महकने लगे।।
चले जो हाथों में हाथ लिए,मील के पत्थर छूटने पीछे लगे।
वजूद अपने अलग जो थे जाने कब,खुशगवार होने लगे।।
एक दौर था जमाने को जब,ऐतराज़ खूब रहा यारी पर हमारी।
मगर धीरे-धीरे मोहब्बत में हमारी पत्थर-दिल भी पिघलने लगे।।
सजाया आशियाना तिनके जुटा,गहरे तूफानों में हमने कैसे।
देख हौसला ए हुनर हमारा,सब दांतो तले उंगलियां दबाने लगे।।
अपराजिता तूली ने भरे,अनिर्वाण रंग नम्रता से घोलकर। ललिता श्रीमुख से दिव्य स्वर,अलख निरंजन गूंजने लगे।।
उमर अस्सी-पिच्चहतर,साथ साढे चार दशकों का शबाब यूँ चढ़ा।
कभी नोक-झोंक,कभी हंसी-ठठ्ठा तो "उस्ताद" कभी तौबा- तौबा करने लगे।।
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