जरूरतॆं तो थोड़ी मगर कितनी बेहिसाब हैॆं चाहतें।
दॊनॊं हथेली फैलाकर हम तो हर वक्त बस मांगते।।
वक्त का जब तक दांव चले तब तलक सब ठीक है।
वर्ना तो खुदा जाने कब वो अशॆ से फर्श पे पटक दे।।
एक महज़ ख़्वाब ही तो है हमारी ये नायाब जिंदगी।
किसी को खुशगवार तो किसी को वो हलकान करे।।
जो मगरूर हो बटोरते रहे बस ऐशोआराम अपने लिए।
अनगिनत ऐसे शख्स दम तोड़ते अक्सर बेसहारा दिखे।।
ये जिंदगी कसम से कोरी लफ़्फाज़ी के सिवा कुछ है नहीं।
जाने क्यों भला "उस्ताद" मोहब्बत लोग इससे करते चले।।
No comments:
Post a Comment