एक अलग धुन,अलग मस्ती में हम चलते रहे।
भीतर जलाकर चिराग रोज खिलखिलाते रहे।।
बनावटी उजाले तो छोड़कर चले ही जाते हैं।
मिला हमें उसका नूर तो परचम लहराते रहे।।
भरपूर दौलत में सुकूं को बस लोगों ने ये किया।
औंधे मुंह मगरमच्छ जैसे चुपचाप बालू पड़े रहे।।
बगैर सोचे समझे चलने की फितरत रही है हमारी। खामियाज़ा भुगता तो कभी तुक्का मार बढ़ते रहे।।
डॉलर,यूरो,रूबल सब हैं ताकत के गुरुर में अपनी। "उस्ताद" तो खाली जेब भी मगर झूमकर गाते रहे।।
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