फागुनी बयार की मस्ती
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साहित्य,संगीत,कला की सात्विक त्रिवेणी जब उर बहती।
सुधारस में अपने गहरे डूबा हमें अनजान लोक ले जाती।
तन-मन की सुध-बुध भुला तब लगती अनोखी समाधि।।
अकल्पनीय मन-वीणा के तारों की झंकार मधुर गूंजती। रंग-बिरंगी तितलियों सी अधर अप्रतिम मुस्कान खिलती।
हरअंग शांत होता पर धड़कनें तीव्र गति थिरकने लगती।।
ऋतम्भरा पहनाती जब फूलों की माला हंसारुढ सरस्वती। भू से नील-गगन पार स्वर्ग तक अद्भुत कांति जगमगाती।
नवसृजन तूलिका सहज पाषाण हृदय-घट भरती रवानी।।
कौतुक रचाने राधा-कृष्ण फिर गोप-गोपी संग बना टोली।
नाचते,गाते,झूमते मिलकर खेलते रंगीन अलौकिक होली। फागुनी बयार तब क्यों न अबीर-गुलाल मल इतरा बहती।
होली का सुंदर वर्णन
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