यद्यपि आया जो शरणागत,प्रभु सबको तूने तारा है।
पर जाने क्यों खुद से ही मुझको,बार-बार बुलाया है।।
अनजान बना,बस रहा निमग्न,खेल जगत का भाया है। बांकी छवि छोड़ के तेरी,सब कुछ इस मूढ़ ने चाहा है।।
जीव यह कितने जन्मों से,पतित,अपावन सदा रहा है।
फिर भी तू तो इस पामर पर,कृपा सदा बरसाता है।।
जाने किस कारण से तूने,मुझको अपना बना लिया है।
देख-देख बस इसी बात को,कौतुक सबको रहता है।।
यद्यपि आत्म-नलिन तो,हर जीव का निर्मल होता है।
जान-बूझे मगर तभी वो,जब हरि खुद से समझाता है।।
@नलिनतारकेश
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