विक्रम - बेताल"- मन के जीते जीत, मन के हारे हार
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भोग-विलास को आतुर हर क्षण खूंटा तोड़ प्रथम आता है मन।
राम नाम मगर बस एक बार उचारने में ही लकवा जाता है मन।।
सब यहीं धरा रह जाएगा,डुगडुगी पीट मुनादी तो करता है मन।
बहुत करीने से मगर इसी न्योछावरी को बटोरता रहता है मन।।
भोगते-भोगते यूँ तो एक बार हांफने -कांपने भी लगता है मन।
प्रलोभन दे पर असंख्य मृगतृष्णा में बार-बार भटकाता है मन।।
मन अगोचर दिखता नहीं मगर अनंत भरे कामना हमारा है मन।
दबाओ लाख चाहे मुट्ठी मगर रेत सा अंततः फिसल जाता है मन।।
अब भला कहो ये अकूत मन भर का क्या कभी न जीता जा सकता है मन।
बहला-फुसला तो कभी बार-बार उदासीनता से गिरफ्त में आ सकता है मन।।
यूँ कथनी करनी रहे मेल न तो बेताल सा छटक हाथ से जाता है मन।
विक्रम-पराक्रम दिखाएं तो संकल्प बल से अंततः पिघल जाता है मन।।
नलिन @तारकेश
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