यहाँ मर के बमुश्किल अकेले कोई जाता है।
निकलता वो तो लेकर चाहतों का पिटारा है।।
आता है तभी तो यहाँ जमीं पर वो बार-बार।
सिलसिला ये जतन लाख ही छूट पाता है।।
हैं यहाँ जो भी बिछुड़ गए संगे-साथी।
यादों का कारवां उनके साथ गाता है।।
मिलते-बिछुड़ते हैं हम धूप-छांव जैसे।
जुदा यहाँ तो सबका ही बहीखाता है।।
देह मरती है,रूह तो मरती नहीं कभी भी।
नायाब एक बस यही तो अपना नाता है।।
चहकते रहो सफर में मिले-बिछुड़े चाहे कोई भी।
"उस्ताद" जिंदगी का बस यही फसाना है।।
नलिन @उस्ताद
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