तेरी काली घनी जुल्फें मुझसे सुलझती नहीं ए जिंदगी।
जितनी करता हूँ कोशिश और-और हैं जाती उलझती।।
चुल्लू से अपने छोटे पी लूं समंदर को भला कैसे बता।
प्यास ऐसी लगी कमबख्त बुझने का नाम लेती नहीं।।
दो कदम चलने पर ही हांफने लगता हूँ अब तो मैं।
तू है कि हर कदम बढ़ाने में लगा है मंजिल से दूरी।।
सलीका प्यार में तुझे इम्तहान लेने का नहीं आता।
हर घड़ी तुझे तो सूझती है अजब-गजब मसखरी।।
क्या करें "उस्ताद" जिद पर हम भी अड़े हैं कुछ भी हो।
यकीं तो है पूरा तू भर देगा कभी न कभी अपनी झोली।।
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